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कविता

रात

बुद्धदेब दासगुप्ता

अनुवाद - नबारुणा भट्टाचार्य


नींद में लथपथ निखिल। उड़ चली निखिल की पत्नी खिड़की खोलकर
तारों के पास। तारों ने अचंभित होकर जानना चाहा - नाम क्या है?
निखिल की पत्नी बोली - तारा।
सुबह हुई। निखिल दौड़ा बाज़ार। दौड़ा दफ्तर। ट्यूशन। नाटक
के रिहर्सल और देर बाद खाना खाकर पड़ रहा बिस्तर पर।
आधी रात, हडबडाकर उसकी नींद टूटी। देखा, उसका सारा मुँह-गाल
भीग रहा है जल में। वक्ष पर न जाने कब उड़ती हुई तारा
आकर सो गई थी।
तारा की देह का नीर, निर्झर बन निखिल पर बरस रहा है
अविराम।
 


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